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कविता

गिरने के बारे में एक नोट...

महेश वर्मा


जैसे ही कोई स्वप्न देखता वह उसको देख लेती और हँसने लगती, अगर सपने में मैं होता तो उसको देख लेता कि वह देखती है इस सपने को भी और उसका हिस्सा नहीं है, अलबत्ता उसके हँसने की वजह मुझको साफ़ होती और बड़ी प्रामाणिक मालूम पड़ती कि अजीब ढंग के बिना नाप के कपड़े पहने हास्यास्पद

जबकि अपने बारे में मेरा यह गर्व कि कपड़ों के चयन और सिलाई के मामले में काफी सावधान और सुरुचिसंपन्न व्यक्ति हूँ।

...तो मेरे सपना देखते ही वह उसको देख लेती और उसकी इच्छा होती तो उस सपने में आती भी। अपने आने में लेकिन वह मुझसे बेपरवाह रहती। अपने सपने वह मुझसे छुपाकर रखती रात के कोटर में नहीं अपने स्त्री होने के रहस्य के भीतर... बल्कि मेरे सामने तो वह कभी सोती ही नहीं। जागती रहती और दूर से देख लेती थके कदमों से आती हुई मेरी नींद को। नींद जब मेरे लिए आ रहती तो वह और निरपेक्ष हो जाती, यह जानता हुआ भी कि मेरे देखते ही वह मेरे सपने देख लेगी, मैं सो रहता।

...एक बार तो यह सोचता अपने सपने में कि अगर वह दिखाई देगी दूर से मेरे सपनों को देखती तो मैं बाहर जाकर उससे पूछूँगा उसके सपनों के बारे में - मैं सपने से गिर भी गया था...

 


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